इच्छामृत्यु पर कानून (आत्महत्या पर कानून)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत मिले जीवन के अधिकार में किसी व्यक्ति की प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक आयु को घटाने या खत्म करने का अधिकार नहीं आता। आईपीसी की धारा 309 के अन्तर्गत आत्महत्या को अपराध माना गया है। इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से जीवन को खत्म करने का अधिकारी नहीं है।
इतना ही नहीं, यदि कोई अन्य व्यक्ति किसी पीडित व्यक्ति के कष्ट को समाप्त करने के लिए ही सही, दया मृत्यु की मांग करता है, तो उस पर आईपीसी की धारा 304 के तहत हत्या का मामला चलाया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे देश के कानून में न तो इच्छामृत्यु और न ही दया मृत्यु की इजाजत दी गई है। सम्भवत: इस मनाही को कानून के मानवीय स्वरूप से जोड़ा गया है।
विषय से जुडे प्रश्न के विश्लेषण के लिए यहां सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय का उल्लेख आवश्यक है,जो मार्च 2011 में अरूणा रामचन्द्रन शानबाग के प्रकरण में सुनाया गया था। इस निर्णय में यह कहकर कि वर्तमान में देश में इच्छामृत्यु पर कोई कानून नहीं है, दयामृत्यु की याचिका को खारिज कर दिया था। वस्तुत: इच्छामृत्यु अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा है तथा इसे वैध घोषित करने से पहले इसके विविध पहलुओं पर गौर करना आवश्यक है।
इस प्रश्न के दो पहलू हैं। इच्छामृत्यु से असहमति जताने वालों का कहना है कि भारत में सेवा भाव की प्रधानता रही है। अत: मरणासन्न व्यक्ति की अन्तिम सांस तक सेवा करनी चाहिए, भले ही वह कितनी भी कष्टप्रद स्थिति में क्यों न हो। किसी हद तक यह तर्क उचित भी है, किन्तु यहां उस व्यक्ति की मर्जी का विशेष महत्व है कि मौत उसे बेहतर विकल्प तो नहीं लग रही है। जिन्दगी जब ऐसा बोझ बन जाए कि उसे उठा पाना मुमकिन न हो तो इस दशा में रोगी के कष्ट को देखते हुए इच्छामृत्यु की अनुमति दिए जाने में बुराई नहीं है।
सुविधाओं के अभाव में भी इसकी अनुमति दी जा सकती है। इच्छामृत्यु के पक्षधारों का मानना है कि प्राण और चेतना पर व्यक्ति के अधिकार को वरीयता दी जानी चाहिए। इच्छामृत्यु को अनुचित बताने वालों का यह मानना है कि यह कृत्य नैसर्गिक व्यवस्था के प्रतिकूल है। वे इसे ईश्वरीय सत्ता से जोड़ कर देखते हैं और यह मानते हैं कि जीवन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक सुन्दर सौगात है। ईश्वर ही जीवन देता है और उसे ही इसे समाप्त करने का अधिकार है। अत: सब कुछ ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। यह ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर आम सहमति बन पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जल्दबाजी में कोई भी निर्णय नहीं लिया जा सकता, क्योंकि इसे वैध ठहराकर कानून निर्मित करने की स्थिति में इसके दुरूपयोग की सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
यही कारण है कि न केवल भारत में, बल्कि विश्व के अनेक विकसित एवं विकासशील देशों में इसकी वैधता को लेकर बहस छिड़ी हुई है। जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है कि संवैधानिक दर्जा मिलने की दशा में इसके व्यापक दुरूपयोग की सम्भावना है। ऐसा ऑस्ट्रेलिया में हो भी चुका है। आस्ट्रेलिया ही वह देश है जहां सबसे पहले वर्ष 1995 में इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता प्रदान की गई।
1996 में वहां इच्छामृत्यु के कानून को लागू किया गया। देखते ही देखते वहां इच्छामृत्यु की बाढ़ सी आ गई। आए दिन इसके दुरूपयोग के मामले सामने आने लगे, जिन्हें देखते हुए वहां की सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े।
25 मार्च 1997 को आस्ट्रेलिया में यह कानून समाप्त कर दिया गया। कहने का आशय यह है कि इच्छामृत्यु को कुछ विशेष दशाओं में वैधानिक दर्जा तो दिया जा सकता है, किन्तु इसके लिए फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है ताकि इसके दुरूपयोग की सम्भावनाएं न रहें।
भारत जैसे देश में ,जहां भ्रष्टाचार और अराजकता के साथ पारिवारिक विघटन और बुजुर्गों की उपेक्षा का चलन बढा है वहां तो और भी अधिक सतर्कता बरती जानी चाहिए। विशेष परिस्थितियों में इच्छामृत्यु को संवैधानिक दर्जा देने से पूर्व यह नितान्त आवश्यक है कि इस विवादास्पद मुद्दे पर संसद में एक परिचर्चा कराई जाए और उससे मिलने वाले रूझानों को देखते हुए अन्तिम एवं स्थाई व्यवस्था का निर्धारण किया जाये।
ऐसा करते समय कानूनी, सामाजिक, नैतिक एवं मानवीय सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जाए। ऐसे उपाय भी सुनिश्चित किए जाए ताकि इसके दुरूपयोग की गुंजाइश न रहे। हमारे देश में वृध्दों की स्थिति पहले से ही चिन्तनीय है। भ्रष्ट व्यवस्था ने सारे पैमाने ध्वस्त कर दिए है। सगे सम्बन्धियों द्वारा वृध्दों की सम्पत्ति हड़पने के मामले रोज सामने आ रहे है।
ऐसा करते समय कानूनी, सामाजिक, नैतिक एवं मानवीय सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जाए। ऐसे उपाय भी सुनिश्चित किए जाए ताकि इसके दुरूपयोग की गुंजाइश न रहे। हमारे देश में वृध्दों की स्थिति पहले से ही चिन्तनीय है। भ्रष्ट व्यवस्था ने सारे पैमाने ध्वस्त कर दिए है। सगे सम्बन्धियों द्वारा वृध्दों की सम्पत्ति हड़पने के मामले रोज सामने आ रहे है।
ऐसे में पूरी पूरी सम्भावना इसके दुरूपयोग की है। वैधानिक स्थिति को हथियार बनाकर यदि इसका दुरूपयोग किया जाने लगा तो स्थिति अत्यन्त भयावह, विकराल और अराजक हो जाएगी। दुष्परिणाम सामने आयेंगे और कानून व्यवस्था को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। अत: इस दिशा में सुचिंतित पहल की जरूरत है। इच्छा-मृत्यु के सामाजिक निहितार्थ तो, खासकर तीसरी दुनिया के गरीब लोगों के लिए, और भी अधिक भयावह है।
तीसरी दुनिया में जहां स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी के बस से बाहर हो चुकी हैं, जहां व्यक्ति के लिए रोटी-कपड़ा-मकान हासिल करना मुहाल है, वहां यदि इच्छा-मृत्यु को कानूनी रूप दे दिया जाए तो असहाय एवं गंभीर रोगियों की इच्छा-मृत्यु के नाम पर हत्याओं की बाढ़ आ सकती है। पूंजीवादी समाज में जहां मानवीय सरोकार दिनों-दिन समाप्त होते जा रहे हैं, वहां पर इच्छा-मृत्यु के नाम पर लाखों मरणासन्न लोगों को अनइच्छित मौत की तरफ धाकेला जा सकता है। अत: गिरते मानवीय सरोकारों एवं सामाजिक जीवन में पसरती जा रही अनैतिकता को देखते हुए ऐसे किसी भी फैसले के भयावह पहलुओं का भी आकलन करना जरूरी है।
सरकार ने फैसला किया है धारा 309 हटाने का
सरकार ने आत्महत्या करने की कोशिश को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला किया है। यानी अब जान देने की कोशिश करने वालों को जेल नहीं होगी। मोदी सरकार ने बुधवार को आईपीसी की धारा 309 को खत्म करने का एलान किया। इस कानून के तहत जान देने की कोशिश करने वाले को 1 साल तक की जेल और जुर्माने की सजा होती थी। सरकार ने बताया कि 18 राज्य और 4 केंद्र शासित प्रदेश इस फैसले के पक्ष में हैं।
कुछ दिन पहले गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा में बताया था कि लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि सेक्शन 309 को अपराध की श्रेणी से हटा दिया जाना चाहिए। कमीशन ने कहा था कि यह कानून मानवीय दृष्टिकोण से सही नहीं है।
इस कानून को हटाने से आत्महत्या की कोशिश के बाद मानसिक प्रताड़ना झेल रहे लोगों को कानूनी अड़चनों में फंसकर अलग से परेशान नहीं होना पड़ेगा। रिजिजू के मुताबिक, होम मिनिस्ट्री सीआरपीसी और आईपीसी के कुछ और दूसरे कानूनों को भी खत्म करने पर विचार कर रही है। बता दें कि सुप्रीम के तत्कालीन जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की बेंच ने भी संसद को सुझाव दिया था कि इस कानून को खत्म किया जाए।
उन्होंने कहा था कि एक शख्स डिप्रेशन में आने के बाद आत्महत्या की कोशिश करता है, इसलिए उसे मदद की जरूरत है, न कि सजा की। जो लोग इस कानून को खत्म किए जाने का विरोध कर रहे थे, उनका तर्क था कि आत्महत्या एक अनैतिक काम है और इसे खत्म करने पर सुसाइड के मामलों में बढ़ोत्तरी हो सकती है।
कानूनी खींचतान काफी पहले से
इस कानून को हटाने की कोशिश काफी पहले से हो रही है। 1978 में आईपीसी संशोधन बिल राज्यसभा में पास हो गया, जिसके जरिए सेक्शन 309 को खत्म किया जाना था। लेकिन इससे पहले कि यह बिल लोकसभा में पहुंचता, संसद भंग कर दी गई और बिल पास न हो सका।
1987 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि भारतीय संविधान के तहत मिलने वाले राइट ऑफ लाइफ में जीने और जान देने, दोनों ही अधिकार समाहित हैं। इसके साथ ही, धारा 309 को खत्म कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को 1994 में बनाए रखा। हालांकि, 1996 में पांच जजों की बेंच ने फैसला दिया कि संवैधानिक तौर पर मिलने पर राइट टू लाइफ में जान देने का अधिकार शामिल नहीं है और धारा 309 वैध है। इसके बाद 2008 में लॉ कमीशन ने इसे हटाने का सुझाव दिया।
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