रविवार, 19 अगस्त 2018

किसी मर्द ,महिला या जानवर के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने पर लगने वाली धारा 377 की जानकारी


समलैंगिक सम्बन्ध और आईपीसी की धारा 377 को समझिये
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 जिसे हम इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 377 के नाम से भी जानते है एक विवादित धारा है जो ब्रिटिश काल में बनी थी जिसके अंतर्गत समान लिंग के कोई भी दो व्यक्ति अगर आपस में सम्बन्ध बनाते है तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा जाता है लेकिन साल 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने “नाज फाउंडेशन” के केस में एक एतिहासिक फैसला देते हुए इसे गलत करार दिया था लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बदलते हुए 2013 में यह कहते हुए रद्द कर दिया कि LGBT ग्रुप के अधिकारों से जुड़े इस मुद्दे को संसद के द्वारा निपटना चाहिए | तो चलिए इसी सेक्शन 377 के बारे में कुछ और बात करते है –

आईपीसी की धारा 377 को जानिए 
इंडियन पीनल कोड की धारा 377 के अनुसार “ किसी भी व्यक्ति , महिला या जानवर के साथ  स्वैच्छिक रूप से संभोग करने वाले व्यक्ति को अपराधी माना जाएगी और उसे आजीवन कारावास की सजा या दस साल तक के कारावास की सजा हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है | “ अगर इस बारे में विस्तार से बात करें तो दिल्ली के हाईकोर्ट में नाज फाउंडेशन द्वारा एक याचिका दायर की गयी जिसमे यह पूछा गया कि “ क्या सेक्शन 377 , संविधान के द्वारा आम नागरिकों को मिले समाज अधिकार और मूलभूत अधिकारों का हनन नहीं करता ? , अगर ऐसा है तो क्यूँ नहीं इसे असवैधानिक करार दे दिया जाये और दो समान लिंग के लोगो के आपसी सहमती से बने हुए संबंधो को कानूनी मान्यता दे दी जाये “  | दो जजों की बेंच ने यह मामला सुना और याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए जज अजीत प्रकाश शाह और जज एस मुरलीधर ने कहा कि “ सेक्शन 377 संविधान में मिले नागरिक अधिकारों 14,15 और 21 के तहत मिले समान अधिकार जिसमे लिंग के अधिकार पर भेदभाव नहीं करना शामिल है कि अवहेलना करता है |”

दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर हुई जिसमे याचिकाकर्ता ने यह कहा कि “ कि धारा 377 में किसी भी तरह के खास ग्रुप और लिंग का उल्लेख नहीं है इसलिए यह किसी भी तरह से मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है  और भारत जैसे देश में जन्हा शादी और शारीरिक संबंधो को एक सांस्कृतिक नजरिये से देखा जाता है ऐसे में अगर धारा 377 को ख़त्म कर दिया गया तो देश के नौजवान समलैंगिक संबंधो में रूचि लेने लगेंगे | “ ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इस माममें पर फैसला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को बदलते हुए इस पर कानून को बदलने या हटाने या बनाये रखने की जिम्मेदारी संसद को सौंप दी |

हो सकता है कुछ लोगो को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले का यह तर्क कुछ अधिक ही सांस्कृतिक लगे लेकिन इस पूरे मामले में अवलोकन में सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि “ सेक्शन 377 ही अकेला ऐसा कानून है जो कि बाल यौन शोषण ,यौन उत्पीड़न और यौन हमले को गैर कानूनी श्रेणी में लाता है | “साथ ही यह देखा गया कि यह कानून संविधान के बनने से पहले अस्तित्व में आया था ऐसे में अगर यह किसी भी नजरिये से नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को प्रभावित करता तो इसे बनाने वाले इस बात का ख्याल रखते और इसे संविधान में जगह नहीं देते | इसी नजरिये को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हाईकोर्ट का फैसला बदल दिया और इसमें संशोधन के जिम्मेदारी संसद पर छोड़ दी |
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