मंगलवार, 10 जनवरी 2017

शिक्षा का अधिकार अधिनियम क़ानून – Right to Education Act

क्या है यह अधिनियम?
6 से 14 साल की उम्र के हरेक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। संविधान के 86वें संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है।
सरकारी स्कूल सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करायेंगे और स्कूलों का प्रबंधन स्कूल प्रबंध समितियों (एसएमसी) द्वारा किया जायेगा। निजी स्कूल न्यूनतम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे।
गुणवत्ता समेत प्रारंभिक शिक्षा के सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए प्रारंभिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया जायेगा।
अधिनियम का इतिहास
    दिसंबर 2002- अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) के माध्यम से 86वें संशोधन विधेयक में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया।
    अक्तूबर 2003- उपरोक्त अनुच्छेद में वर्णित कानून, मसलन बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2003 का  पहला मसौदा तैयार कर अक्तूबर 2003 में इसे वेबसाइट पर डाला गया और आमलोगों से इस पर राय और सुझाव आमंत्रित किये गये।
    2004- मसौदे पर प्राप्त सुझावों के मद्देनजर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2004 का संशोधित प्रारूप तैयार कर http://education.nic.in वेबसाइट पर डाला गया।
    जून 2005- केंद्रीय शिक्षा सलाहकार पर्षद समिति ने शिक्षा के अधिकार विधेयक का प्रारूप तैयार किया और उसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे नैक के पास भेजा, जिसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी हैं। नैक ने इस विधेयक को प्रधानमंत्री के ध्यानार्थ भेजा।
    14 जुलाई, 2006- वित्त समिति और योजना आयोग ने विधेयक को कोष के अभाव का कारण बताते हुए नामंजूर कर दिया और एक मॉडल विधेयक तैयार कर आवश्यक व्यवस्था करने के लिए राज्यों को भेजा। (76वें संशोधन के बाद राज्यों ने राज्य स्तर पर कोष की कमी की बात कही थी।)
    19 जुलाई 2006- सीएसीएल, एसएएफई, एनएएफआरई और केब ने आईएलपी तथा अन्य संगठनों को योजना बनाने, बैठक करने तथा संसद की कार्यवाही के प्रभाव पर विचार करने व भावी रणनीति तय करने और जिला तथा ग्राम स्तर पर उठाये जानेवाले कदमों पर विचार के लिए आमंत्रित किया।

भारत में शिक्षा के अधिकार विधेयक मंजूर
भारतीय संविधान में संशोधन के छह साल बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को मंजूरी दे दी। प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिलने से पहले, इसे संसद की स्वीकृति के लिए भेजा जायेगा।
आजादी के 61 साल बाद भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को मंजूरी दी है, जिससे 6 से 14 साल आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाना मौलिक अधिकार बन गया है।
विधेयक के प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं: प्रवेश के स्तर पर आसपास के बच्चों को निजी स्कूलों में नामांकन में 25 प्रतिशत आरक्षण। स्कूलों द्वारा किये गये खर्च की भरपाई सरकार करेगी। नामांकन के समय कोई डोनेशन या कैपिटेशन शुल्क नहीं लिया जाएगा और छंटनी प्रक्रिया के लिए बच्चे या उसके अभिभावकों का साक्षात्कार नहीं होगा।
विधेयक में शारीरिक दंड देने, बच्चों के निष्कासन या रोकने और जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबंधन के अलावा शिक्षकों को गैर-शिक्षण कार्य में तैनात करने पर रोक लगायी गयी है। गैर मान्यताप्राप्त स्कूल चलाने पर दंड लगाया जा सकता है।
भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम् ने इसे बच्चों के साथ किया गया महत्वपूर्ण वादा करार देते हुए कहा कि शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना केंद्र और राज्यों का संवैधानिक दायित्व हो गया है।
उन्होंने कहा कि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मानव संसाधन मंत्रालय विधेयक का विवरण चुनाव आयोग से सलाह के बाद जारी करेगा।
 विधेयक की जांच-पड़ताल के लिए नियुक्त मंत्रियों के समूह ने इस महीने के शुरू में किसी फेरबदल के बिना ही विधेयक को मंजूरी दे दी थी, जिसमें आसपास के वंचित वर्गों के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश के स्तर पर 25 प्रतिशत का आरक्षण देने का प्रावधान है। कुछ लोग इसे सरकार की जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए निजी क्षेत्र को मजबूर करने के दृष्टिकोण से भी देखते हैं।
शिक्षा का अधिकार विधेयक 86वें संविधान संशोधन को कानूनी रूप से अधिसूचित कर सकता है, जिसमें 6 से 14 साल के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।
1936 में जब महात्मा गांधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी लागत जैसे मुद्दे, जो आज भी जीवित हैं, का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गयी थी।
2002 में 86वें संविधान संशोधन के जरिये शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया था।
2004 में सत्तारूढ़ राजग ने विधेयक का प्रारूप तैयार किया लेकिन इसे पेश करने के पहले ही वह चुनाव हार गई। इसके बाद यूपीए का वर्तमान प्रारूप विधेयक खर्च और जिम्मेदारी को लेकर केंद्र तथा राज्यों के बीच अधर में झूलता रहा।
आलोचक उम्र के प्रावधानों को लेकर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि 6 साल से कम और 14 साल से अधिक उम्र के बच्चों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा सरकार ने शिक्षकों की कमी, शिक्षकों की क्षमता के निम्न स्तर और नये खुलनेवाले स्कूलों की बात तो दूर, वर्तमान स्कूलों में शिक्षा के आधारभूत ढांचे की कमी की समस्या भी दूर नहीं की है।
इस विधेयक को राज्यों के वित्तीय अंशदान के मुद्दे को लेकर पहले कानून और वित्त मंत्रालयों के विरोध का सामना करना पड़ा था। कानून मंत्रालय को उम्मीद थी कि 25 प्रतिशत आरक्षण को लेकर समस्या पैदा होंगी, जबकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस पर हर साल 55 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया था।
योजना आयोग ने इस राशि की व्यवस्था करने में असमर्थता जतायी थी। राज्य सरकारों ने कहा था कि वे इस पर होनेवाले खर्च का हिस्सा भी देने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए केंद्र को पूरा खर्च स्वयं वहन करने के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ा।
विधेयक के प्रारूप में तीन साल के भीतर हर इलाके में प्रारंभिक स्कूल खोले जाने का लक्ष्य है, हालांकि स्कूल शब्द से सभी आधारभूत संरचनाओं से युक्त स्कूल की छवि ही बनती है।
इसके लिए न्यूनतम आवश्यकताओं का एक सेट तैयार किया गया, क्योंकि सुदूरवर्ती ग्रामीण और गरीब शहरी क्षेत्र में कागजी काम की सामान्य बाधाएं हैं। राज्य को भी यह जिम्मेदारी दी गयी कि यदि कोई बच्चा आर्थिक कारणों से स्कूल नहीं जा रहा हो, तो वह उसकी समस्या को दूर करें।
नई दिल्ली के बाराखंबा रोड स्थित मॉडर्न स्कूल की प्राचार्या लता वैद्यनाथन् ने कहा: कानून और विधेयक से बच्चे स्कूल नहीं जा सकते। शुरुआत में समस्याएं होंगी, लेकि साथ ही हरेक को अपनी सामाजिक जिम्मेवारी समझनी होगी, वहीं सबसे महत्वपूर्ण यह है कि क्या इस कार्यक्रम तक सही बच्चों की पहुंच है। उनका कहना है कि शुल्क का अवयव सरकार द्वारा दिया जायेगा, लेकिन दूसरे पर खर्च थोपना उचित नहीं है।
इसके बावजूद विधेयक तैयार करनेवाले शिक्षाविद् तर्क देते हैं कि सामाजिक जिम्मेदारी का वहन करना विशेषाधिकार माना जाना चाहिए, बोझ नहीं।

अक्सर पूछे जानेवाले सवाल

यह विधेयक क्यों महत्वपूर्ण है?
यह विधेयक महत्वपूर्ण है क्योंकि संवैधानिक संशोधन लागू करने की दिशा में, सरकार की सक्रिय भूमिका का यह पहला कदम है और यह विधेयक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि-
इसमें निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक तथा माध्यमिक शिक्षा का कानूनी प्रावधान है।
प्रत्येक इलाके में एक स्कूल का प्रावधान है।
इसके अंतर्गत एक स्कूल निगरानी समिति के गठन प्रावधान है, जो समुदाय के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम स्कूल की कार्यप्रणाली की निगरानी करेगी।
6 से 14 साल के आयुवर्ग के किसी भी बच्चे को नौकरी में नहीं रखने का प्रावधान है।
उपरोक्त प्रावधान एक सामान्य स्कूल प्रणाली के विकास की नींव रखने की दिशा में प्रभावी कदम है। इससे सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा सकेगी और इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को अलग-थलग करने में रोक लग सकेगी।
2. 6 से 14 साल के आयु वर्ग को चुनने का क्या उद्देश्य है?
विधेयक में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से प्रारंभिक से माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा देने पर जोर दिया गया है और इस आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने से उनके भविष्य का आधार तैयार हो सकेगा।
यह कानून क्यों महत्वपूर्ण है और इसका भारत के लिए क्याः अर्थ है?
मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून 2009 का पास होना भारत के बच्चोंस के लिए ऐतिहासिक क्षण है।
यह कानून स‍ुनिश्चित करता है कि हरेक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्राप्ति हो और यह इसे राज्यर, परिवार और समुदाय की सहायता से पूरा करता है।
विश्वन के कुछ ही देशों में मुफ्त और बच्चेह पर केन्द्रित तथा तथा मित्रवत शिक्षा दोनों को सुनिश्चित करने का राष्ट्री य प्रावधान मौजूद है।
‘मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा क्या है?
6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूलों में मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलेगा।
इसके लिए बच्चेक या उनके अभिभावकों से प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के लिए कोई भी प्रत्यबक्ष फीस (स्कूल फीस) या अप्रत्यक्ष मूल्य (यूनीफॉर्म, पाठ्य-पुस्तकें, मध्या भोजन, परिवहन) नहीं लिया जाएगा। सरकार बच्चे को निःशुल्कू स्कूलिंग उपलब्ध करवाएगी जब तक कि उसकी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं हो जाती
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